राजनीति का शिकार झारखंड

शाहनवाज आलम


झारखंड की उम्र महज दस साल है। मगर सात मुख्यमंत्री देख चुका है और आठवें मुख्यमंत्री की अगवानी की तैयारी दिख रही है। झामुमो और आजसू ने शेष साढ़े चार वर्षों के कार्यकाल के लिए भाजपा के नेतृत्व में सरकार को समर्थन देने की घोषणा की है। इसी के साथ झारखंड में छाया राजनीतिक संकट हल होता नजर आ रहा है। मगर बड़ा सवाल यह है कि क्या भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार स्थिर होगी?


दरअसल झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता का दौर इसके अस्तित्व के साथ ही शुरू हुआ। मौजूदा राजनीतिक अस्थिरता मुख्यमंत्री शिबू सोरेन की कलाबाजी की देन है। झारखंड में झामुमो, भाजपा के साथ है। लेकिन सोरेन केन्द्र में भाजपा द्वारा लाये गये कटौती प्रस्ताव के विरूद्ध और यूपीए के पक्ष में मतदान करते है। यूपीए सरकार के समर्थन में आने से नाराज भाजपा ने शिबू सोरेन सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा कर दी। लेकिन सत्ता मोह में फंसी भाजपा वास्तव में ऐसा नहीं कर सकी। झामुमो के भाजपा मुख्यमंत्री बनाने के बयान ने भगवा गलियारे में ऐसी अफरा-तफरा मचाई कि सिद्धांतों की जगह सत्ता भाने लगी। सोरेन के साथ मिलकर सरकार बनाते समय भाजपा को यह पता नहीं था कि वे कभी भी पलटी मार सकते है? हो सकता है आने वाले दिनों में गुरूजी भाजपा को और धोखा दें। शिबू सोरेन अभी विधानसभा के सदस्य हीं है। पिता को मुख्यमंत्री बनाये रखने के लिए विधायक हेमंत सोरेन ने अपना इस्तीफा दे दिया है। दुमका विधानसभा क्षेत्र खाली है, जिसपर उपचुनाव होना तय है। उपचुनाव में शिबू सोरेन वहां से चुनाव भी लड़ेगे। अगर उपचुनाव में जोड़-तोड़-मरोड़ कर चुनाव जीत जाते है तो फिर से राज्य में राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू होना तय है, क्योंकि शिबू सोरेन अवसरवादी हैं और हमेशा मुख्यमंत्री बने रहना चाहते हैं। भाजपा में मुख्यमंत्री पद को लेकर अस्थिरता का दौर कायम है। इसे लेकर भाजपा संसदीय बोर्ड को माथा-पच्ची करनी पड़ रही है। झामुमो ने आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग रखी है। जबकि प्रदेश भाजपा से अर्जुन मुंडा और रघुवर दास का नाम सामने आ रहा है। मगर दिल्ली की पसंद तो हजारीबाग के सांसद यशवंत सिन्हा है। अर्जुन मुंडा पूर्व मुख्यमंत्री है और रघुवर दास वर्तमान में उपमुख्यमंत्री है। दोनों राजनेता झारखंड के जमशेदपुर क्षेत्र के है तथा पिछले कुछ समय से उनके बीच छत्तीस का आंकड़ा चल रहा है, जिसके कारण भाजपा को सरकार बनाने की राह दुश्वार बनी हुई है। किसी तरह भाजपा अपना मुख्यमंत्री चुन भी लेती है तो आठवें मुख्यमंत्री का कार्यकाल कितने दिनों का होगा यह तो वक्त ही बतायेगा।


दरअसल राज्य बनने के साथ ही सियासत का खेल चलता आ रहा है। खेल में शामिल खिलाड़ियों को शायद यह ख्याल ही नहीं है कि पब्लिक सब जानती है। झारखंड के चैक-चैराहों से अलग-अलग सवाल उठ रहे हैं कि अलग राज्य बनने से क्या हुआ ? उस भावना का क्या हुआ जिसमें विपन्नता दूर कर पिछड़े क्षेत्र को संपन्न बनाने की बात कही गयी थी। हरेक के जेहन में एक ही सवाल है झारखंड के साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है ?


नवंबर 2000 में बने तीन राज्यों में से झारखंड की हालत सबसे बदतर है, अखिर सवाल है क्यों? प्राकृतिक संसाधनों के अलावा ऐसे अनेक स्रोत है जिनपर काम करके झारखंड को देश का अव्वल राज्य बनाया जा सकता है। मगर अफसोस कि झारखंड विकास से कोसों दूर है। आखिर विकास का काम क्यों नहीं होता ? गौर करें तो कारण साफ नजर आता है। ऊपर से नीचे तक व्यवस्था, समाज और राजनीति हमेषा अस्थिर रही। ऐसे में प्रदेश का विकास कैसे होगा, यह चिंता का विषय है।


अगर एक नजर झारखंड की राजनीति पर डाले तो साफ पता चलता है कि आज तक जितनी भी सरकार बनी और उन सरकारों में जो भी मुख्यमंत्री बने, वे स्वयं भी असुरक्षित रहे। जब झारखंड अस्तित्व में आया तो बाबूलाल मरांडी मुख्यमंत्री बने, लेकिन बहुमत नहीं होने के कारण हमेशा चिंतित रहे। उन्होंने किसी तरह 28 महीने तक मुख्यमंत्री कार्यकाल गुजारा। इसके बाद आदिवासी नेता अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने। लेकिन वे अपनों से ही त्रस्त रहे। जैसे-तैसे 2003-05 तक सरकार चलाई। चुनाव घोषित हुआ। चुनाव के बाद गुरूजी को सरकार बनाने का प्रस्ताव मिला। विश्वाश मत प्राप्त न कर सके और पुनः भाजपा के नेतृत्व में अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने। पूर्ण बहुमत नहीं मिलने के कारण अर्जुन मुंडा भी स्थिर सरकार नहीं दे सके और सरकार गिर गई। प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा। कांग्रेस ने चाल चली और देश के इतिहास में पहली बार निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा को राजद और झामुमो के समर्थन से मुख्यमंत्री पद दिया गया। मधु कोड़ा बिना आधार के मुख्यमंत्री बन गये। इशारे पर नाचने वाली कठपुतली की तरह। खुद भी लूटा और दूसरे को भी लूटने का खूब मौका दिया। जब मधु कोड़ा भ्रष्टाचार के मामले से दब गये तब कांग्रेस ने एक और चाल चली। कांग्रेस ने अपने सहयोग से शिबू सोरेन को एक बार मुख्यमंत्री बना दिया। लेकिन वे विधान सभा के सदस्य नहीं थे। संविधान के अनुसार उन्हें चुनाव लड़ना था। चुनाव लड़े, लेकिन तमाड़ की जनता ने मुख्यमंत्री को विधायक के रूप स्वीकार नहीं किया। जिसके कारण प्रदेश फिर से राष्ट्रपति के हाथों में चला गया। फिर शिबू सोरेन मुख्यमंत्री का पदभार संभाले और अभी तक है। लेकिन सवाल फिर मौजू है कि गरीबी, बेरोजगारी और नक्सलवाद जैसे समस्याओं से जूझ रहे राज्य में भविष्य की तस्वीर क्या होगी? हालांकि अस्थिरता के बीच अब कौन और कितने दिन राज्य की बागडोर संभालेगा यह भी देखनेवाली बात होगी।

1 comments:

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