माखनलाल चतुर्वेदी : "एक भारतीय आत्मा"

शाहनवाज़ आलम

जैसे स्वामी विवेकानंद को एक कोरा सन्यासी, महात्मा गाँधी को कोरा राजनेता कहकर टालानही जा सकता, ठीक उसी प्रकार पंडित माखनलाल चतुर्वेदी को कोरा साहित्यकार या पत्रकार कह कर नहीं टाला जा सकता है। पंडित माखनलाल चतुर्वेदी का अदभूत व्यक्तित्व स्वतंत्र सेनानी, विशुद्ध साहित्यकार, क्रन्तिकारी कवि एवं निर्भीक पत्रकार की मिली-जुली रेखाओं से बनता है। वे कर्म से योद्धा, बुद्धि से चिन्तक, दिल से कवि स्वाभाव से संत और अद्भूत बेजोड़ प्रवक्ता थे। उनका सम्पूर्ण जीवन और चिंतन भारतीय समाज कि रक्षा करने और संवारने के सन्दर्भ में अभिव्यक्त हुआ है। उन्होंने जो लिखा उसमें अतीत कि झलक, वर्तमान कि स्वाभिमान और भविष्य के प्रति आशा का संकेत था। उनके व्यक्तित्व के विकास के कारण सामान्य परिवार में जन्म और संघर्षपूर्ण जीवन था।

अपने संघर्षरत जीवन के बारे में कहते हैं कि-
"सूली का पथ ही सिखा हूँ, सुविधा सदा बचाता आया।
मैं बलि पथ का अंगारा हूँ, जीवन ज्वाला जलाता आया॥"
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के एक छोटे से गांव बाबई में उनका जन्म 04 अप्रैल 1889 को हुआ था। चतुर्वेदी जी की प्राथमिक शिक्षा बाबई में हुई। नृसिंह मंदिर के सामने मैदान में रामलीला होती थी जिसमें आप कभी राम तो कभी लक्ष्मण का किरदार निभाते रहते। इन पात्रों का आप पर गहरा प्रभाव पड़ा और आप कवि जैसे सोच रखने लगे। यही प्रभाव आगे चलकर वैष्णवाद का रूप ले लिया। बचपन में चतुर्वेदी जी मंदिर की गायें चराने भी नर्मदा के तट पर जाया करते थे। कन्धे पर लाठी रखकर वे अक्सर ‘‘मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो’’ गाया करते थे। आल्हा-उदल के छंदों के साथ हरदौल का चरित्र गाकर सुनाया जाता था तो बड़े चाव से सुनते थे। इस प्रकार चरित्र श्रवण से उनके हृदय में वीर-भाव जागृत हुए। निर्भीकता, दृढ़ निश्चय व व्यवहार कुशलता पिताजी से विरासत में मिली। माखनलाल जी को कई भाषाओं में महारत हासिल थी। कुछ को बोल लेते थे तो कुछ को लिख भी लेते थे। बांग्ला उन्होंने विष्णु पंतजी से सीखी। इसी तरह मराठी, गुजराती, ऊर्दू, फारसी और अंग्रेजी भाषा पर आपकी पकड़ थी। चतुर्वेदी जी का विवाह सन् 1930 में बाबई में ही ग्यारसी बाई से हो गई थी। तब वे 14 साल के थे और पत्नी की उम्र 09 वर्ष की थी। आपकी संतान कन्या के रूप में हुई पर जल्द ही उसकी मृत्यु हो गई। बीमारी के कारण पत्नी के देहांत 1914 में हो गया। वे बहुत दुखी हुए और ऐसे क्षण में दुख से भरी कविता ‘भाई छेड़ों नहीं मुझे’ शोक गीत लिखी। माखनलाल जी को माता-पिता व परिवारजन समेत प्रिय मित्र गणेश शंकर विद्यार्थी ने दूसरे विवाह के लिए समझाया और दबाव डाला पर उन्होंने मना कर दिया और अकेले ही जीवन पथ पर निकल पड़े। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सुनहरे अतीत को पलटने पर पता चलता है कि माखनलाल जी का साहित्यिक व पत्रकारीय दोनों ही दृष्टियों से महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के जिन आंदोलन में भाग लिया। उसका प्रारंभ रतौना कसाई खाना आंदोलन से माना जाता हैै। इस आंदोलन के कारण अंग्रेजों को मुंह की तरह खानी पड़ी। रतौना कसाई खाना आंदोलन अपने युग का सबसे सफल जन आंदोलनों में से एक था। जिसकी शुरूआत चतुर्वेदी जी द्वारा प्रकाशित अखबार कर्मवीर से हुआ। 1920 में एक ब्रिटिश कंपनी सेंट्रल और ट्रेडिग ने सागर के निकट में रतौना नामक स्थान पर कसाई खाना खोलने की अपनी विस्तृत योजना को समाचारपत्र में विज्ञाप्ति किया। चतुर्वेदी जी अपनी बंबई यात्रा के दौरान पायोनियर नामक समाचार पत्र में यह विज्ञापन पढ़ा। उन्होंने अपना 17 जुलाई 1920 को दिया जाने वाला संपादकीय रोककर रतौना कसाई खाना की विभित्सता पर नया संपादकीय लिखा जो ‘गौवध की ख्रूंखार तैयारी’ शीर्षक के अंतगर्त प्रकाशित हुआ। इस कारखाने को ब्रिटिष कंपनी 40 लाख रूपये की rashii से स्थापित करने वाली थी। इसमें प्रतिदिन 2500 गायों के काटने की योजना थी। कर्मवीर में माखनलाल जी संपादकीय लिखने के बाद समस्त प्रदेश में उसके विरोध में एक ज्वाला सी दहल उठी। थोड़े ही समय में अखिल भारतीय आंदोलन का वातावरण बन गया। माखनलाल जी ने इस आंदोलन का नेतृत्व वैज्ञानिक भूमि पर किया और उसे धार्मिक सीमाओं से मुक्त रखा। परिणाम यह हुआ कि उन्हें हिन्दुओं के साथ मुसलमान, सिक्खों और ईसाइयों का प्रबल समर्थन प्राप्त हुआ। 12 मार्च 1921 के आंदोलन को विस्तार देने के लिए एक राजनैतिक परिषद् को संबोधित करने वे बिलासपुर आये थे। सभा में चतुर्वेदी जी ने कहा- ब्रिटिश राज के प्रेस एक्ट ने हमें नामर्द बना दिया है। 150 साल के अंदर ब्रिटिश सरकार सिर्फ दस प्रतिशत लोगों को पढ़ा सकी है। हिन्दुस्तान में अंग्रेज मुठ्ठी भर है। हम चाहे तो उनका कचूमर निकाल दे परंतु कम संख्या वाले अंग्रेजों को मारना कायरता और नीचता है। इस भाषण से उन पर राजद्रोह का मुकदमा बिलासपुर के अदालत में दायर किया गया। उनके खिलाफ मुकदमा चला और 05 जुलाई को कारावास की सजा सुनायी गयी। अदालत में एक कविता पढ़ते हुए अपनी सर्वोच्च आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति की थी। उन्होंने कहा थाःहूं राष्ट्रीय सभा का सैनिक, छोटा सा अनुगामी हूँ। इसकी ध्वनि पर मर मिटने में, मैं खुद अपना स्वामी हूं।। आठ माह की जेल काटने के बाद 04 मार्च 1922 को वे जेल से रिहा हुए। 18 फरवरी 1922 को बिलासपुर जेल के चहारदीवारी के अंदर पुष्प के माध्यम से अपने जीवन की घोषणा की जो आज प्रत्येक भारतवासी के कंठों में रच-बस गया है।
चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूथा जाऊ
चाह नहीं प्रेमी की माला छिंद प्यारी को ललचाउ.....
मुझे तोड़ देना वनमाली उस पथ पर देना तुम फेंका
मात्री भूमि पर शीष चढ़ाने जिस पथ पर जाए अनेक।।
1930 में उन्हें राजद्रोह के अभियोग में फिर एक वर्ष की सजा हुई। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 63 बार तलाषी ली गई और 12 बार कारावास की सजा भोगनी पड़ी। वस्तुतः हिन्दी लेखन में जहां तक अनुभूति की निष्ठा का प्रष्न है उसमें माखनलाल जी स्थान अप्रतिम है। साहस भरे पुरूष की दृढ़ता और कवि सुलभ कोमलता के भी प्रतीक थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रकृति का ऐसा मानवीकरण किया कि वे छायावाद की पहली रचनाओं के रूप में स्वीकार की गई। उनकी प्रथम काव्य संग्रह ‘हिमकिरीटनी’ एक भारतीय आत्मा के नाम 1942 में प्रकाषित हुई। इसमें उनके द्वारा लिखी गयी कविता जबलपुर संेटल जेल में लिखी है। दूसरा काव्य संग्रह ‘हिमतरंगिनी’ लगभग सात वर्ष बाद 1949 में प्रकाषित हुआ। उसमें 1908 से लेकर 1945 तक 55 कविताएं संकलित है। तीसरा काव्य संग्रह 1951 में ‘माता’ नाम से प्रकाशित हुआ। 56 कविताएं संग्रहित है जो 1904 से लेकर 45 के बीच लिखी गई । चौथा काव्य संग्रह 1964 में आया। माखनलाल एक कुशल वक्ता भी थे। जब वे बोलते थे तो लोग शांत हो जाते थे। उनके वक्तृत्व कला पर महात्मा गांधी भी मुग्ध थे। उन्होंने एक बार टिप्पणी की थी-‘हम सब लोग तो बात करते है, बोलना तो माखनलाल जी ही जानते है। सन् 1933 में मध्यप्रदेश में महात्मा गांधी के हरिजन दौरे के समय बाबई पहुंचे थे। तब उन्होंने कहा था- मैं बाबई जैसे छोटे स्थान पर इसलिए जा रहा हूं क्योंकि वह माखनलाल जी का जन्म स्थान है। जिस भूमि माखनलाल जी को जन्म दिया है, उसी भूमि को मैं सम्मान देना चाहता हूं।’ अज्ञेय धर्मवीर भारतीय, रामधारी सिंह दिनकर, गोपाल प्रसाद व्यास, ज्वाला प्रसाद, आषारानी, सुधाकर पांडेय, विष्वभर नाथ पांडे, सुमित्रानंदन पंत, शिवकुमार मिश्र, श्रीकांत जोशी आदि पत्रकारों और साहित्यकारों ने चतुर्वेदी जी कलम को शक्ति की खूब प्रशंसा की। वे हिन्दी के गौरव रहे है। उनके जबान में सरस्वती निवास करती थी। कलम में अद्भूत शक्ति थी। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनका योगदान युगों-युगों तक स्मरणीय रहेगा।